जलीय संस्कृति और राजस्थान
Author(s): पवन कुमार जग्रवाल
Abstract: ‘‘जल ही जीवन हैं।‘‘ यह बात प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक हमेशा सार्थक रहीं हैं क्योंकि इस सृष्टि पर जल के बिना न तो मानव और न ही जीव-जन्तु और पेड़ पौधों का अस्तित्व सम्भव हैं। इस संसार में जल का सृष्टि के रचना काल से ही मानव, जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों के द्वारा किया जाता रहा है। जल हमारे जीवन का आधार होने के कारण ही समय समय पर मनुष्य ने न केवल जल का उपयोग किया हैं बल्कि इसके संरक्षण के उपाय भी खोंजे हैं। दूिनयाँ के सभी क्षेत्रों में जहाँ जल कम या अधिक मात्रा में पाया जाता हैं वहाॅ पर जल के सरंक्षण के उपाय खोजे गये है।
भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है जल संस्कृति। वर्षा जल के पृथ्वी पर गिरने से लेकर उसका वर्ष भर कैसे सदुपयोग हो, ऐसे सभी उपायों को सहेजकर जन-जन के व्यवहार में शामिल किया। थार मरूस्थल से लेकर दोआब क क्षेत्र में जल की समुचित व्यवस्था बनी रहे? इन सबके लिए हमारे पुरखों ने ऐसी व्यवस्था स्थापित कर दी थी कि जिससे जल के साथ भावनात्मक संबंध बना रहें।1
भारत के सन्दर्भ में जल का और भी अधिक महत्व बढ़ जाता हैं क्योंकि भारतीय धार्मिक ग्रन्थों मं जल को देवता के रूप में देखा गया हैं। प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान समय तक भारत में जल की पूजा की जाती रही हैं। जल को एक पवित्र तत्व के रूप में देखा जाता रहा है। भारत में सैकड़ां नदियाॅ रही हैं जिनकी देवी के रूप में देखा जा सकता हैं। इन नदियों में गंगा, यमुना, सरस्वती, ब्रहमपुत्र, कावेरी, सतलज, आदि प्रमुख रही हैं। इहलौक और परलौक दोनों में ही जल के महत्व को विश्व की अपेक्षा भारत में अधिक महत्व दिया जाता रहा हैं। राजस्थान विशेष की दृष्टि से जल हमारे लिए और भी प्रभावी बन जाता हैं क्योंकि राजस्थान एक रेतीला क्षेत्र हैं। इस कारण यह हमेशा ही जल का अभाव पाया जाता हैं। इसी कारण प्राचीनकाल में जब राजतंत्र प्रचलित था, तब विभिन्न शासकों के द्वारा जल को लेकर समय-समय पर अनेक उपाय किये गये ताकि जल को सरंक्षित किया जा सके। जल सरंक्षक की प्राचीन विधियाँ न केवल प्राचीन काल में बल्कि आज भी हमारे लिए उपयोगी सिद्व हो रही हंै। इस प्रकार जल को लेकर एक नवीन संस्कृति विकसित हो गई हैं, जिसे जलीय संस्कृति कहा जा सकता हैं। वेदोत्तर काल के सभी ग्रंथों में जल का महत्व भी स्पष्ट किया गया हैं, उसके विभिन्न उपयोग स्पष्ट किए गए हैं और उसके संग्रहण के उपाय गए हैं, अतिवृष्टि से, बाढ़ से, जलप्रपात से और जल के संक्रमण से बचने के उपाय भी बतलाए गए हैं। भारत में प्राचीन धर्मशास्त्रों में जल को प्रदूषित करना अपराध माना जाता था। मनु ने स्पष्ट कहा हैं कि जल में गंदी चीज कभी भी न फेंकी जाए ‘‘नाप्सु मूत्रं पुरीषं वा ष्ठीवनं वा समुत्सृजेत्। अमेध्यलिप्तं अन्यद्वा लोहितं वा विषाणि वा।‘‘2 मूत्र, विष्ठा, थूक अथवा अन्य कोई भी बाहरी चीज जल में न फेंकी जाए, यह इससे स्पष्ट होता हैं। मध्यकाल मंे देश के उन अंचलों में जहाॅ नदियों का जल पूर्णतः उपलब्ध नहीं होता था, जो मरूस्थलीय क्षेत्र हैं, जहाॅ वृष्टि का अनुपात भी कम हैं, जल संग्रहण के विविध उपायों की व्यापक परम्पराएँ तलाशी जाती रही हैं।
Pages: 400-403 | Views: 26 | Downloads: 16Download Full Article: Click Here
How to cite this article:
पवन कुमार जग्रवाल. जलीय संस्कृति और राजस्थान. Int J Geogr Geol Environ 2024;6(1):400-403.